लिखना, अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम
सांस्कृतिक अभिव्यक्ति
एक गहन मस्तिष्क साक्षरता पर निर्भर नहीं होता है। वह शब्दों को जोड़कर मन की स्पष्टता प्रकट करता है। इसकी झलक पुरातन मौखिक आख्यानों, पूर्वजों की कहानियों, पारंपरिक नाटकों और लोकनृत्यों में देखने को मिलती है। इस सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को बड़ी चतुराई से नीति-नियंताओं ने खारिज कर दिया और गैरगंभीर घोषित कर दिया। इन तरीकों को संवाद का नहीं, मनोरंजन का साधन बता दिया गया। राजनीतिक परिदृश्य ऐसा हो गया है कि मध्यस्थ द्वारा पेश की गई प्रस्तुति को स्वीकार कर लिया जाता है, जबकि उसी मुद्दे पर पीडि़त व्यक्ति के अनुभवों को खारिज कर दिया जाता है। ऐसे में महत्वपूर्ण है कि गरीब व्यक्ति सीधे अपनी बात लिखे। उन्हें अपने सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व के लिए आवाज उठाने का हक है।
खुद को व्यक्त करने की कला
लिखना और पढऩा बातचीत करने की तरह है। लेखन पहले खुद के साथ बातचीत है और फिर किसी और से बात करने की आशा है। लिखना महत्वपूर्ण है, पर उस देश में जहां सामान्य लोगों को कुछ विशेष पढऩे को नसीब नहीं होता है, वहां जमीनी स्तर पर काम करना भी जरूरी है। पढऩा आपको जीवन में आगे ले जाता है और लिखना खुद को व्यक्त करने की कला होती है।
कहने के लिए आगे आएं
गरीबों को खुद अपनी बात कहनी और लिखनी पड़ेगी। उन्हें अपनी किताबों को छुपाने की आवश्यकता नहीं है। हमें इन्हें खेतों और कारखानों में भेजना होगा। लेखन को किसी वंश या डिग्री से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। पश्चिम बंगाल के मनोरंजन ब्यापारी जेल में ही साक्षर हुए। उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसकी चर्चा देश के कई साहित्य समारोहों में हुई। यह हर कोई कर सकता है।
क्रिएटिव तरीके से कहें बात
कुछ साल पहले भारत में एक ऑटोमोबाइल फैक्ट्री के मजदूरों ने अपने मुद्दों को लेकर एक नाटक प्रस्तुत किया। उन्होंने लेखक, निर्देशक, गायक और अभिनेता के रूप में अपनी क्रिएटिविटी पेश की। उन्होंने नाटक की मदद से अपने जीवन को प्रकट किया। दुनिया में मौजूद किताबों को माफी नहीं मांगनी चाहिए, बल्कि मजबूती से अपनी बात को नए सिरे से कहना चाहिए।
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